हमारे व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ें

मूंग की फसल में लगने वाले सभी रोग, उनकी पहचान एवं उपचार इस तरह करें

WhatsApp Group Join Now
Instagram Group Join Now
Telegram Group Join Now

मूंग की फसल में रोग एवं उनका उपचार

भारत में मूंग एक पारंपरिक दलहनी फसल है , देश में मूंग का उत्पादन खरीफ, रबी के अलावा आजकल जायद सीजन में भी होने लगा है राजस्थान, महाराष्ट्र,आँध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश एवं तमिलनाडु राज्यों में मुख्य रूप से होता है। मूंग की फसल में विभिन्न अवस्थाओं में अनेक प्रकार के रोग लगने की सम्भावना रहती है। यदि इन रोगों की सही पहचान करके उचित समय पर नियंत्रण कर लिया जाए तो उपज का काफी भाग नष्ट होनें से बचाया जा सकता है।

 

मूंग की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन :-

 

सरकोरस्पोरा पत्र बुंदकी रोग : इस रोग का संक्रमण पहले पुरानी पत्तियों से प्रारंभ होता है जिससे पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं तथा इनके किनारे भूरे लाल रंग के हो जाते हैं। पुष्पीकरण के समय अत्यधिक प्रकोप पर पत्तियाँ झड जाती है तथा दाने सुकड़े हुए एवं बदरंग हो जाते हैं।

रोग का उपचार इस तरह करें :-

  • बुवाई से पहले केप्टन या थीरम 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से बीजोपचार करना चाहिए।
  • फसल में रोग की लक्षण दीखते ही काबन्डाजिम 1% अथवा मेन्कोजेब 0.25% का छिडकाव आवश्यकतानुसार 10 – 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए।

 

यह भी पढ़े : स्प्रिंकलर सेट तथा ड्रिप सिस्टम सब्सिडी के लिए अंतिम तिथि 10 अगस्त

 

 

मूंग में पीला चितेरी रोग :- यह विषाणु जनित रोग है। इसमें पत्तियों पर अनियमित पीले एवं हरे रंग के धब्बे पड़ने लगते हैं। जो बाद में मिलकर बड़े–बड़े धब्बों में परिवर्तित हो जाते हैं। जिससे सम्पूर्ण पत्ती पीली पड़ जाती है तथा पतियों में उत्तक क्षय भी होने लगता है। संक्रमित पौधों में पुष्प एवं फलियाँ देर से तथा कम लगते हैं। इस रोग के लक्षण फलियों एवं दोनों पर भी दिखाई देते हैं। यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है।

 

रोग का उपचार इस तरह करें :-

  • इस रोग के लक्षण दीखते ही आक्सीडेमेटान मेथाइल 0.1% या डायमेथोएट 0.3% प्रति हेक्टेयर 500 – 600 ली. पानी में घोलकर 3 – 4 बार छिडकाव करें।
  • खेत से एवं मेड़ों से पूर्ण फसल अवशिष्ट, खरपतवार एवं संक्रमित पौधा को निकालकर नष्ट करें।
  • रोगप्रतिरोधी किस्मों को अपनायें जैसे – मूंग की – एलजीपी – 407, एमएल – 267 इत्यादि, उड़द की – तेज, पंत – 30, पंत – 90 इत्यादि।

 

मूंग में पर्ण व्यान्कुचन/ झुर्रीदार पत्ती रोग :- इस रोग में पौधों की पत्तियों की वृद्धि अधिक तथा बाद में मरोड़पन / झुरियां होने लगती है। संक्रमित पौधों की पत्तियां मोटी एवं खुरदरी होती है।

रोग का उपचार इस तरह करें :-

  • संक्रमित पौधों एवं खरपतवार के शुरूआती अवस्था में ही उखाड़कर जला देना चाहिए।
  • रोग प्रतिरोधी प्रजाति जैसे एलडीटी–3 इत्यादि को उगाना चाहिए।
  • इस रोग का संचरण कीटों जैसे माहू व सफेद मक्खी द्वारा होता है इसलिए कीटों का नियंत्रण करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। खेत में रोग के लक्षण दीखते ही या बुआई के 15 दिनों के बाद इमीडाक्लोपरीड 1 प्रतिशत या डायमेंथोएट 0.3 प्रतिशत का फसल पर छिड़काव करें।

 

मूंग में चूर्णी कवक रोग :- इस रोग का प्रकोप पौधों के सभी वायवीय भागों पर हो सकता है। इसमें सर्वप्रथम पत्तियों की निचली सतह पर छोटे – छोटे सफेद बिंदु देते हैं जो बाद में बड़ा सफेद धब्बा बना लेता हैं। रोग की तीव्रता के साथ सफेद धब्बों का आकार भी बढ़ता जाता है।

रोग का उपचार इस तरह करें :-

  • प्रतिरोधी किस्में जैसे उड़द – एलवीजी-17 , एलबीजी – 402, इत्यादि तथा मूंग की टीएआरएम -1, पूसा – 9072 इत्यादि का प्रयोग करें।
  • घुलनशील गंधक 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें।
  • कार्बेन्डाजिम 0.5% या केराथेन 0.1% का छिडकाव आवश्यकतानुसार 10 – 15 दिन के अन्तराल पर करें।

 

यह भी पढ़े – डेयरी, मांस प्रसंस्करण और पशु आहार संयंत्र स्थापित करने के लिए मिलेगा 90 प्रतिशत तक लोन

 

मूंग की फसल में रुक्ष रोग (एंथ्रकजोन) :- इस रोग के कारण फसल की उत्पादकता व गुणवत्ता दोनों प्रभावित होती है । उत्पादन में लगभग 24 से 64 प्रतिशत तक की कमी आती है। बादल युक्त मौसम के साथ – साथ उच्च आद्रता व 26 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान इस रोग का प्रमुख कारक है। फसल में रोग उत्पन्न करने वाले प्राथमिक स्रोत युक्त बीज तथा रोग युक्त फसल अवशेष होते हैं।

लक्षण

  • रोग ग्रसित फलियाँ सीधे बीज ओर उसकी गुजवत्ता अंकुरित क्षमता को क्षति पहुंचाती है।
  • धंसे हुए भूरे धब्बे कातिलेड्न और नयी शाखाओं पर भी बन जाते हैं।
  • आद्र परिस्थितियों में धब्बों का आकार व संख्या बढ़ जाती है तथा नये पौधे मर जाते हैं।
  • फलियों पर धसे हुए काले धब्बे दिखाई देते हैं , जिनका मध्य भाग कभी – कभी मटमैला सफेद होता है।
  • रोग ग्रस्त बीजों के कारण उत्पन्न होने से पहले ही पौधें मर जाते हैं।
  • उग्र अवस्था में पौधे के रोग्र्रुत भाग झड जाते हैं। कभी – कभी ए धब्बे गोलाकार हंसिये के आकार के या टेड़े मेढ़े हो सकते हैं इनका मध्य भाग धुएं के रंग का व 4 से 8 मिमी. व्यास के हो सकते हैं।

 

रोग का उपचार इस तरह करें

  • प्रमाणित बीज का प्रयोग करें बीजों का थीरम अथवा कैप्टान द्वारा 2 – 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज अथवा कार्बेन्डाजिम 0.5 – 1 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
  • रोग के लक्षण दिखाते ही 0.2 प्रतिशत जिनेब अथवा थीरम का छिडकाव करें । आवश्यतानुसार 15 दिन के अंतराल पर अतिरिक्त छिडकाव करें। कार्बेन्डाजिम या मैंकोजेब (0.2 प्रतिशत) का छिडकाव भी इस रोग के नियंत्रण हेतु प्रभावी है।

 

मूंग में मोजेक मोटक रोग :- इस रोग में पत्तियाँ विकृत होकर सुकड जाती है। पत्तियों पर फफोले पड़ जाते हैं जिससे पौधों की वृद्धि सामान्य से कम होती है। यह रोग बीज द्वारा संचारित होता है।

रोग प्रबंधन :-

  • प्रमाणित एवं स्वस्थ्य बीजों का ही प्रयोग करें।
  • संक्रमित पौधों एवं खरपतवार को उखाड़कर जला दें।
  • आवश्यकतानुसार कीटनाशी दवा का छिडकाव करें।

 

मूंग की फसल में पर्ण संकुचन/लीफ कर्ल रोग :- इस रोग का प्रकोप पौधों की किसी भी अवस्था में हो सकता है। इस रोग में तरुण पत्तियों के किनारे पर शिराओं और उसकी शाखाओं के चारों और हरिमहीनता प्रकट होना प्रारंभ हो जाता है पत्तियां नीचे की ओर कुंचित एवं भंगुर हो जाती है। ऐसी पत्तियां थोड़े से झटके से ही डंठल सहित नीचे गिर जाती है। यह रोग / थ्रिप्स / चूसक कीट द्वारा संचालित होता है।

रोग का उपचार कैसे करें :-

  • इमीडाक्लोप्रिड 5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीजोपचार करके बुवाई करें, आवश्यकतानुसार बुवाई के 15 दिन बाद5 मिली. प्रति ली. का घोल बनाकर छिडकाव करने से इस रोग के प्रकोप को नियंत्रित किया जा सकता है।

 

 

शेयर करे