कोरोना काल के बाद से देश में औषधीय पौधों की खेती का चलन बढ़ा है, यहाँ तक की सरकार भी औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा दे रही है।
ऐसा ही एक औषधीय पौधा है काली हल्दी Black Turmeric।
भारत में पीली हल्दी का तो रोज़ाना सभी घरों में उपयोग किया जाता है यहाँ तक कि इसे बहुत अधिक शुभ माना जाता है ठीक इसी तरह काली हल्दी भी औषधीय गुणों से भरपूर होती है,
हालाँकि अभी देश में इसका उत्पादन कम होने के चलते इसका उपयोग अभी कम होता है।
परन्तु विभिन्न प्रकार की दवाई बनाने में इसका उपयोग किया जा रहा है।
काली हल्दी की खेती
वैसे तो इस हल्दी का कच्चा कन्द तोड़कर देखा जाए तो यह अंदर से नीले रंग का दिखाई देता है परन्तु इसे काली हल्दी के नाम से जाना जाता है।
इसका उपयोग देश में जादू टोने से लेकर भगवान को चढ़ाने, सौन्दर्य प्रसाधन एवं बहुत से रोगों के लिए औषधी बनाने में किया जाता है।
वैसे तो उत्तर-पूर्वी भारतीय राज्यों खासकर मिजोरम में इसकी खेती होती है परंतु बीते कुछ वर्षों से इसकी माँग में इजाफा होने के चलते इसकी खेती देश के अन्य हिस्सों में भी की जाने लगी है।
काली हल्दी के उपयोग
मुख्यतः काली हल्दी का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन व रोग नाशक दोनों ही रूपों में किया जाता है।
काली हल्दी मजबूत एंटीबायोटिक गुणों के साथ चिकित्सा में जड़ी-बूटी के रूप में प्रयोग की जाती है।
तंत्रशास्त्र में काली हल्दी का प्रयोग वशीकरण, धन प्राप्ति और अन्य कार्यों के लिए किया जाता है।
काली हल्दी का प्रयोग घाव, मोच, त्वचा रोग, पाचन तथा लीवर की समस्याओं के निराकरण के लिए किया जाता है।
यह कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मदद करती है।
काली हल्दी का पौधा कैसा होता है?
काली हल्दी को अंग्रेजी में ब्लैक जे डोरी तो वानस्पतिक नाम में Curcuma caesia भी कहते हैं।
साथ ही इसे अलग-अलग राज्यों एवं भाषाओं में अलग-अलग नाम से जाना जाता है।
इसका पौधा तना रहित 30–60 से.मी. ऊँचा होता है। पत्तियां चौड़ी गोलाकार उपरी स्थल पर नील बैंगनी रंग की मध्य शिरा युक्त होती है।
पुष्प गुलाबी किनारे की ओर रंग के शपत्र लिए होते हैं। राइजोम बेलनाकार गहरे रंग के सूखने पर कठोर क्रिस्टल बनाते हैं।
राइजोम का रंग कालिमा युक्त होता है।
काली हल्दी की खेती कैसे की जाती है?
इसकी खेती के लिए उष्ण जलवायु उपयुक्त होती है। यह बलुई, दोमट, मटियार, मध्यम पानी पकड़ने वाली जमीन में अच्छे से उगाई जा सकती है।
चिकनी काली, मरूम मिश्रित मिट्टी में कंद बढ़ते नहीं है। मिट्टी में भरपूर जीवाश्म होना चाहिए।
जल भराव या कम उपजाऊ भूमि में इसकी खेती नहीं की जा सकती है।
इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. 5 से 7 के बीच होना चाहिए। इसकी बुआई मई से जून माह के दौरान की जा सकती है।
इसके पौधों को ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। इसके कन्दों की रोपाई नमी युक्त भूमि में की जाती है।
इसके कंद या पौध रोपाई के तुरंत बाद उनकी सिंचाई कर देनी चाहिए।
हल्के गर्म मौसम में इसके पौधों को 10 से 12 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए।
जबकि सर्दी के मौसम में 15 से 20 दिन के अंतर पर सिंचाई करना चाहिए।
रोपाई के 2 माह बाद पौधों की जड़ों में मिट्टी चढ़ा देना चाहिए। हर एक से 2 माह बाद मिट्टी चढ़ाना चाहिए।
काली हल्दी के कन्द की रोपाई कैसे करें
इसके कन्दों की रोपाई कतारों में की जाती है। प्रत्येक कतार के बीच डेढ़ से दो फीट की दुरी होना चाहिए।
कतारों में लगाये जाने वाले कन्दों के बीच की दुरी 20 से 25 से.मी. के आस–पास होनी चाहिए।
कन्दों की रोपाई जमीन में 7 से.मी. गहराई में करना चाहिए। पौध के रूप में इसकी रोपाई मेढ़ के बीच एक से सबा फीट की दुरी होनी चाहिए।
मेढ़ पर पौधों के बीच की दुरी 25 से 30 से.मी. होनी चाहिए। प्रत्येक मेढ़ की चौडाई आधा फीट के आस–पास रखनी चाहिए।
कितनी पैदावार प्राप्त होती है ?
इसकी पैदावार दो से ढाई किलो प्रति पौधा होना अनुमानित है। एक हेक्टेयर में 1100 पौधे लगते हैं।
जिनसे 48 टन पैदावार होती है। प्रति एकड़ लगभग 12 से 15 टन पैदावार होती है जो सूखकर 1 से 1.5 टन रह जाती है।
नोट: भारत सरकार द्वारा काली हल्दी को विलुप्त प्राय औषधियों की सूची में रखा गया है। अतः इसकी खेती करने के पूर्व वन विभाग को किसान भाई सूचित करें।