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सरसों की फसल में लगने वाले मुख्य कीट एवं उनका नियंत्रण

 

सरसों की फसल में कीट एवं उनका नियंत्रण

 

देश में रबी फसलों में सरसों की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है, सोयाबीन, मूंगफली के बाद सरसों की खेती देश भर में सबसे ज्यादा होती है|

खाद्य तेल के रूप में सरसों की मांग अधिक रहने के कारण पिछले कुछ वर्षों से किसानों को सरसों की खेती से अच्छा मुनाफा हो रहा है|

सरसों का अच्छा उत्पादन कई कारणों पर निर्भर करता है जैसे मिट्टी, जलवायु, बीज, रोग तथा कीट|

कीट एवं रोगों का प्रभाव सीधे सरसों के उत्पादन पर होता है इसलिए किसानों को समय पर इनकी पहचान कर उन पर नियंत्रण पाना आवश्यक है|

 

सरसों की फसल में समय-समय पर विभिन्न कीट एवं रोग काफी नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे उपज में कमी आती है|

यदि समय रहते इन रोगों एवं कीटों का नियंत्रण कर लिया जाए तो सरसों के उत्पादन में बढ़ोतरी की जा सकती है|

चेंपा या माहू, आरामक्खी, चितकबरा कीट, मटर का पर्ण सुरंगक कीट आदि सरसों के मुख्य कीट हैं|

 

सरसों का माहूं (चैपा /मोयला /एफिडा) कीट

सरसों का माहू छोटा, लंबा व कोमल शरीर वाला कीट है| प्रौढ़ माहूं दो अवस्थाओं में पाया जाता है: पहला पंखरहित और दूसरा पंखसहित|

पंखरहित प्रौढ़ 2 मि.मी. लंबे, गोलाकार व हरे रंग के या हल्के हरे पीले रंग के होते है|

पंखसहित प्रौढ़ पीले उदर वाले व पंख पारदर्शी होते हैं| शिशु पंखरहित अवस्था के समान होते हैं, परन्तु आकार में छोटे होते हैं|

दो नलीनुमा संरचनाएं (कोर्निक्ल्स) उदर के अंतिम भाग में उपस्थित होती है|

 

हानि के लक्षण

ये कीट प्राय: दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में प्रकट होते हैं और मार्च के अंत तक सक्रिय रहते हैं और मार्च के अंत तक विभिन्न भागों जैसे – पुष्पक्रम, पत्ती, तना, टहनी व फलियों से रस चूसकर नुक्सान पहुंचाते हैं|

ये कीट समूहों में रहते हैं व तीव्रता से वंशवृद्धि करते हैं| माहूं पहले फसल की वानस्पतिक कलिका पर प्रकट होते हैं व धीरे–धीरे पुरे पौधे को ढक लेते हैं|

ये कीट मधुस्राव निकालते हैं और पौधों पर काले कवक का आक्रमण हो जाता है|

तना व पत्तियाँ काली हो जाती हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषण में बाधा आती है|

इस प्रकाश यह कीट उपज व तेल की मात्रा में कमी करता है| बादालयुक्त व ठंडा मौसम वंशवृद्धि के लिए अत्यंत उपयुक्त होता है|

 

समन्वित कीट प्रबंधन

  • जहाँ तक संभव हो सरसों की बुआई 15 अक्टूबर तक कर देनी चाहिए, इससे फसल माहूँ के प्रकोप से बच जाती है| उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा का ही प्रयोग करना चाहिए|
  • माहूँ के प्राथमिक आक्रमण पर 10 दिनों के अन्तराल पर 2-3 बार माहूँ ग्रसित टहनियों को तोड़कर नष्ट कर देने से माहूँ की वंशवृद्धि को कम किया जा सकता है|
  • फसल में कम से कम 10 प्रतिशत पौधे माहूँ से ग्रसित हों तथा प्रत्येक पौधे पर 26 से 28 माहूँ हों, तभी छिड़काव करना चाहिए|
  • ऑक्सी-डेमेटान मिथाइल (मेटासिस्टाक्स) 25 पायस सांद्रण अथवा डाइमिथोएट (रोगोर) 30 पायस सांद्रण अथवा मैलाथियान 50 पायस सांद्रण की एक लीटर मात्र को 600-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें
  • अथवा इमिडाक्लोप्रिड 1708 एस.एल. को 5 मि.ली. / 15 लीटर पानी की दर से घोलकर छिड़काव करें| यदि दोबारा से कीट का प्रकोप हो तब 15 दिनों के अन्तराल से पुनः छिड़काव करें|

 

सरसों की आरा मक्खी

इस कीट की प्रौढ़ मक्खी 8–11 मि.मी. लंबी, पीले–नारंगी रंग की ततैया की तरह होती है| इसके पंख धूसर रंग के व काली शिरायें लिए हुए होते हैं |

इसका अंडरोपक दांतेदार व आरिनुमा होता है इसलिए इसे आरा मक्खी कहते हैं| सर व टाँगे काली होती है|

इसकी सुंडी गहरे हरे रंग की होती है, जिसकी पीठ पर पांच लंबवत धारियां होती है|

 

हानि के लक्षण

यह कीट मुख्य रूप से फसल की पौधावस्था (अक्टूबर-नवंबर) में ही नुक्सान पहुंचाता है|

सूंडी, पत्तियों को काटकर उनमें अनियमित आकार के छेद कर देती हैं| अधिक प्रकोप की अवस्था में पौधे को कंकालित कर देती हैं|

फसल में आक्रमण पौधावस्था में अधिक होता है और 3–4 सप्ताह पुरानी फसल में ज्यादा नुक्सान होता है|

मध्य जलवायु और कम आर्द्रता इसकी वंशवृद्धि के लिए अनुकूल है|

 

समन्वित कीट प्रबंधन

  • स्वच्छ कृषि क्रियाएं (खरपतवार नियंत्रण, वैकल्पिक पोषक पौधे व फसल अवशेषों आदि को नष्ट करना) अपनाना चाहिए|
  • गर्मियों के दिनों (मई-जून) में खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिए|
  • फसल लगभग एक माह की हो जाए तब सिंचाई करनी चाहिए | इससे इस कीट की सूंडी पानी में डूबकर मर जाती है|
  • इस कीट के प्रकोप की अवस्था में मैलाथियान 50 पायस सांद्रण की एक लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए|

 

मटर का पर्ण सुरंगक कीट

प्रौढ़ मक्खी छोटी काले रंग की होती है और इसका सिर पिला होता है|

प्रौढ़ मक्खी की लंबाई 1.5 मि.मी., पंख विन्यास लगभग 4 मि.मी. व घरेलू मक्खी के समान परन्तु आकार में छोटी होती है|

नए मेगेट्स कीट धूसर सफेद रंग के होते हैं और इनके मुखांग काले भूरे रंग के होते हैं|

पूर्ण विकसित कीट हरा पीला रंग का लगभग 3 मि.मी. चौड़ा, जिनका मध्य भाग मोटा और आगे से चपटा होता है|

कीट पत्ती में सुरंग के अंदर रहता है और सुरंग में ही कृमिकोष में चला जाता है|

 

हानि के लक्ष्ण

पौधे की पत्तियों में प्रौढ़ मादा के अन्डरोपक से अंडे देने के लिए छोटे–छोटे छेद करती है|

प्रौढ़ मादा व नर इन छेदों से निकलने वाले रस को चूसते हैं| ये कीट पत्ती के पैरेनकाइमा ऊतकों को खाकर टेढ़ी–मेढ़ी सुरंग बनाते हैं|

अत्यधिक ग्रसित पत्तियां पीली होकर गिर जाती है व उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है| अधिक प्रकोप की दशा में ग्रसित पत्तियां छितर जाती हैं|

पौधों का ओज प्रभावित होता है और पुष्पं एवं फलन गतिविधियाँ प्रभावित होती है| इस कीट का प्रकोप प्राय: पुरानी पत्तियों पर अधिक होता है|

 

समन्वित कीट

  • ग्रसित पत्तियों को तोड़कर जमीन में दबा देना चाहिए, ताकि पत्तियों में छिपे कीट व कृमिकोष नष्ट हो जाएं|
  • आँक्सी–डेमेटोन मिथाइल 25 पायस सांद्रण या डाइमिथोएट 30 पायस सांद्रण की एक लीटर मात्रा को 600–800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें अथवा इमिडाक्लोप्रिड 1708 एस.एल. को 5 मि.ली. / 15 लीटर पानी की दर से घोलकर छिड़काव करें|

 

चितकबरा कीट

प्रौढ़ कीट के शरीर के ऊपर काले व चमकीले नारंगी रंग के धब्बे होते हैं| प्रौढ़ 6.5–7.0 मि.मी. चौड़ा व पूर्ण विकसित शिशु 4 मि.मी. लंबा व 2.6 मि.मी. चौड़ा होता है| इन पर भूरी धारियां पाई जाती हैं|

पहली व दूसरी अवस्था शिशु कीट का रंग चमकीला नारंगी और तीसरी व चौथी अवस्था का रंग लाल होता है|

मुखांग चुभाने–चूसने वाले एवं पश्चोंमुखी होते हैं|

 

हानि के लक्ष्ण

ये कीट फसल के छोटे–छोटे पौधों को या पौध अवस्था में अधिक नुक्सान पहुंचाते है|

शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही पौधे की पत्तियों एवं प्ररोह से रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं|

फसल की दो पत्ती अवस्था में नुक्सान होने पर ग्रसित उपरी भाग मुरझाकर सुख जाता है|

वानस्पतिक अवस्था में प्रकोप के समय पत्तियों पर सफेद धब्बे हो जाते हैं| पौधे का विगलन हो जाता है व पौधे पूर्णत: सुख जाते हैं|

दोनों मामलों में फसल की दोबारा बुआई आवश्यक हो जाती है|

यह कीट फली बनने व पकने की अवस्था में भी आक्रमण करता है, जिससे फलियाँ व दाने सिकुड़ जाते हैं|

खलिहानों में कटी हुई फसल पर इन कीटों का आक्रमण व हानि को देखा जा सकता है| इस प्रकार यह कीट उपज व तेल की मात्रा में कमी करता है|

मध्यम तापमान 20 से 40 डिग्री सेल्सियस व कम आर्द्रता इस कीट के गुणन के लिए उपयुक्त है|

 

समन्वित कीट प्रबंधन
  • खेत में साफ़–सफाई रखनी चाहिए | खेतों के आसपास खरपतवार तथा फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए|
  • खेतों की गर्मियों के दिनों (मई-जून) में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिए|
  • बुआई के 3–4 सप्ताह बाद यदि संभव हो, तो पहली सिंचाई कर देनी चाहिए|
  • पौधावस्था में इस कीट का आक्रमण होने पर क्यूनालफाँस 10 प्रतिशत अथवा मैलाथियान 5 प्रतिशत धुल की 20–25 किलोग्राम मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें|
  • अत्यधिक प्रकोप की अवस्था में मेलाथियान 50 पायस अथवा डाइमिथोएट (रोगोर) 30 पायस सांद्रण की एक लीटर अथवा इमिडाक्लोप्रिड 1708 एस.एल. की 150 मि.ली.मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करें|
  • फसल का रंग सुनहरा होने पर ही कटाई कर लेनी चाहिए | फसल की जल्द से जल्द मड़ाई कर लेनी चाहिए, जिसमें अधिक हानि न हो व पादप अवशेषों को तुरंत नष्ट कर देना चाहिए|

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