सरसों की सुरक्षा
सरसों तिलहन फसलों की रानी है। भारत में इसकी बिजाई लगभग 75 लाख हेक्टेयर में की जाती है और उत्पादन लगभग 65 लाख टन होता है।
हरियाणा में भी यह प्रमुख तिलहन फसल है और साधारणतया 4.50 लाख हेक्टेयर में बिजाई होती है।
गत कई वर्षों से सरसों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है और गत वर्ष 6.50 लाख हेक्टेयर तक पहुँचा।
सरसों विक्रय सीजन रबी 2020-21 में भारत सरकार द्वारा समर्थन मूल्य रु. 4425/- घोषित करने और उसके उपरान्त सरसों का बाजार भाव समर्थन मूल्य से अधिक मिलने से उत्साहित किसानों का सरसों के प्रति रूझान बढ़ा है।
सरसों बिक्री सीजन 2021-22 के लिए रु. 5050/- प्रति क्विंटल समर्थन मूल्य घोषित करने, बाजार में अधिक उत्पादन देने वाली संकर किस्मों के आने से कृषक सरसों के लिए और उत्साहित हुआ है और इस तरह लगता है सरसों बिजाई का क्षेत्र 8 लाख तक हो सकता है।
फसल सुरक्षा
फसल का लाभकारी मूल्य मिलने, संकर किस्मों से अधिक उत्पादन की आशा से आकर्षित किसान विगत वर्षों की अपेक्षा इस बार सरसों फसल की सुरक्षा में अधिक ध्यान देगा।
फसल सुरक्षा द्वारा उत्पादन की हानि को बचाना भी उत्पादकता बढ़ाना होता है।
सरसों की फसल में मुख्य व्याधिया- बीमारियाँ सफेद रतुआ और तना गलन है।
सफेद रतुआ
सफेद रतुआ एक प्रकार का फंगस-फफूंदी रोग है। पुष्प क्रम स्तर तक पहुँच जाने तथा मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू) के लक्षणों से 17-30 प्रतिशत तक फसल में आर्थिक नुकसान हो जाता है।
प्रारम्भिक अवस्था में इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तों के निचली तरफ सफेद रंग के फफोलों के रुप में बनते हैं।
प्रभाव ज्यादा होने पर ये फफोले आकार में बढ़ कर मिल जाते है। पत्तों में फोटोसिथेसिस की क्रिया न होने से पत्ते गिर जाते हैं।
भयावह हालात होने पर पुष्प बनने के स्थान पर सफेद पाउडर बन जाता है और पुष्प तथा फलियां नहीं बनती बल्कि पुष्पन भाग में विक्रतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और पुष्पवृत मुड़ जाता है और इस विक्रति को बारह सिंघा कहते हैं।
इस बीमारी को फैलाने में 10 डिग्री से कम तापमान, वातावरण में 90 प्रतिशत सापेक्ष आद्र्रता तथा हल्की बंूदाबांदी बढ़ावा देती है।
इस व्याधि को रोकने के लिए आवश्यक है कि किसान जनवरी माह में सरसों फसल का रोज निरीक्षण करें।
क्योंकि पहले पत्तों पर उत्पन्न लक्षणों के आधार पर कदम उठायें, क्योंकि कम ताप, आद्र्रता और बूंदाबांदी का समय बदलने से रोग का वातावरण बदलने से दवाई छिडक़ने का कोई लाभ नहीं होता, इसलिए कवकनाशी उपचार के लिए रोग आने का इंतजार किए बिना 400 ग्राम मेंकोजेब डायथेन एम-45, डायथेन 7.78, रिडोमिल का छिडक़ाव करें।
रसायनिक तत्वों को छिडक़ाव के अलावा दूसरे उपाय भी करें जैसे प्रमाणित बीज का प्रयोग करना, 6 ग्राम प्रति किलो मेटालेक्सिल एप्रोन 35 डी.एस. से बीज को उपचारित करें।
स्क्लेरोटिनिया-तना गलन
सरसों में पिछले 15 साल से तना गलन का प्रकोप बढ़ा है और 15 से लेकर 100 प्रतिशत तक नुकसान हो रहा है।
तना गलन को वैज्ञानिक भाषा में स्क्लेरोटिनिया स्क्लेरोटिनियम नामक फफूंद से होती है। इस रोग के प्रकोप लक्षण तब दिखाई देते हैं जब फसल में फलियाँ बन जाती हैं।
इस समय पत्तियाँ कम हो जाती हैं और रसायन के छिडक़ाव का यथोचित लाभ नहीं मिलता, क्योंकि पौधों पर उस समय पत्तियाँ कम होने के कारण रसायन अवशोषण नहीं होता। इसलिए इस रोग के नियंत्रण के लिए कदम पहले ही उठा लें।
इस रोग के लक्षण में सरसों के पौधों में जमीन से लगभग 6 इंच ऊँचाई पर तना सफेद पडऩा शुरू हो जाता है।
इस तने को तोड़ कर देखें तो यह सफेद भाग कपास जैसा हो जाता है। इस कपास जैसे भाग में लगभग 4-6 काले रंग के अनियमित आकार के मनके जैसी रचना दिखाई देती है, इन्हें स्क्लेरेटिनिया कहते हैं।
हरियाणा में सरसों की जमीन से 1) फुट ऊपर से कटाई करते हैं इसलिए रोग के काले मणियों जैसी आकृति खेत में ही रह जाते हैं और अगले साल खेत में बीमारी फैलाने में सहायक होते हैं।
बीमारी के लिए अनुकूल वातावरण के रुप में 85-90 प्रतिशत सापेक्ष आर्द्रता तथा 18.20 डिग्री से. तापक्रम है।
इस रोग का प्रभाव ज्यादा नाइट्रोजन का उपयोग तथा अधिक सिंचाई से भी होता है। इस रोग के नियंत्रण के लिए 200 ग्राम कार्बेंडाजिम का घोल फसल के 70 दिन बाद कर दें।
बिजाई के समय बीज 2 ग्राम प्रति किलो से उपचारित करें।
जैविक नियंत्रण के रुप में 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी तथा 5 ग्राम ट्राईकोडर्मा हैमेटम से बीज उपचारित करें तथा और 200 ग्राम ट्राईकोडरमा बिरडी तथा 200 ग्राम ट्राईकोडर्मा हैमेटम को 200 लीटर पानी में मिला कर बिजाई के 50 दिन बाद स्प्रे करें।
ध्यान रखें कि जैविक उपचार करने पर रासायनिक उपचार नहीं करें।
पाला
जीरो डिग्री सैलसियस से कम ताप पर पानी बर्फ में बदल जाता है। सरसों फसल में दाने बनते समय यदि तापमान शून्य से नीचे चला जाता है तो फलियों में दाना नहीं बनता।
अत: अगेती फसल बोने से पाले से होने वाली क्षति से बचा जा सकता है। फूल निकलने या एक बार दाना बन जाने पर क्षति नहीं होती केवल दाना बनते समय पाले से हानि होती है।
पाले से फसल क्षति बचाने के लिए पाला पडऩे की सम्भावना वाले दिनों में सरसों के खेत के आस-पास कूड़ा जला कर तापक्रम बढ़ायें।
सल्फर के उत्पाद सल्फैक्स या थायो यूरिया के छिडक़ाव से भी पाले से हानि बचाई जा सकती है।
पाला पडऩे से सरसों की फसल में प्रोटीन विखंडित हो जाती है और डिहाईड्रेशन होता है और प्रोटोप्लाज्म तथा प्रोटीन का डिहाईड्रेशन होता है।
गंधक/सल्फर के छिडक़ाव से पौधों में प्रोटीन विखंडित नहीं होती और सरसों फसल की रक्षा हो जाती है।
सरसों में पाला पडऩे के कारण 50 प्रतिशत तक हानि हो जाती है।
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